Here is an essay on ‘Globalization’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Globalization’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Globalization
Essay Contents:
- वैश्वीकरण का अर्थ (Meaning of Globalization)
- वैश्वीकरण की परिभाषाएँ (Definitions of Globalization)
- वैश्वीकरण की आवश्यकता (Needs of Globalization)
- वैश्वीकरण की विशेषताएँ या लक्षण (Features or Characteristics of Globalization)
- वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण के प्रभाव (Impact of Globalization)
- वैश्वीकरण से सम्बद्ध कठिनाइयाँ (Constraints of Globalization)
- वैश्वीकरण के सम्बन्ध में सुझाव (Suggestions Regarding Globalization)
Essay # 1. वैश्वीकरण का अर्थ (Meaning of Globalization):
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वैश्वीकरण का सम्बन्ध मुख्यतः विश्व बाजारीकरण से लगाया जाता है । जो व्यापार अवसरों के विस्तार का द्योतक है । वैश्वीकरण में विश्व बाजारों के मध्य पारस्परिक निर्भरता उत्पन्न होती है क्योंकि व्यापार देश की सीमाओं में न बँधकर लाभ की दशाओं का दोहन करने की दशा में अग्रसर होता है ।
इस उद्देश्य से विश्व का सूचना एवं परिवहन साधनों के माध्यम से एकाकार हो जाना वैश्वीकरण है । इस प्रकार की व्यवस्थाओं में खुली अर्थव्यवस्थाओं का जन्म होता है, जो प्रतिबन्धों से मुक्त तथा जिसमें स्वतन्त्र व्यापार होता है । इस प्रकार वैश्वीकरण में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों या नियमों का स्थान महत्वपूर्ण हो जाता है ।
वैश्वीकरण का अभिप्राय किसी देश की अर्थव्यवस्था को विश्व के अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं से जोड़ने से है जिससे व्यावसायिक क्रियाओं का विश्व स्तर पर विस्तार हो सके तथा देशों की प्रतिस्पर्द्धात्मक क्षमता का विकास हो । इस प्रकार वैश्वीकरण को अन्तर्राष्ट्रीयकरण के रूप में भी देखा जाता है । अन्य शब्दों में, वैश्वीकरण का अर्थ देश की अर्थव्यवस्था को विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत करना है ।
Essay # 2. वैश्वीकरण की परिभाषाएँ (Definitions of Globalization):
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वैश्वीकरण को विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है:
a. ऑस्कर लेन्जे के अनुसार, ”आधुनिक समय में अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास का भविष्य मुख्यतः अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग पर निर्भर करता है ।”
b. प्रो. दीपक नैय्यर के अनुसार, ”आर्थिक क्रियाओं का किसी देश की राजनैतिक सीमाओं के बाहर तक विस्तार करने को वैश्वीकरण कहते हैं ।”
c. प्रो. एन. वाघुल के शब्दों में, ”वैश्वीकरण शब्द बाजार क्षेत्र के तीव्र गति से विस्तार को प्रकट करता है, जो विश्वव्यापी पहुँच रखता है ।”
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d. जॉन नैसविट एवं पोर्टसिया अबुर्डिन के अनुसार, ”इसे ऐसे विश्व के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें सभी देशों का व्यापार किसी एक देश की ओर गतिमान हो रहा हो । इसमें सम्पूर्ण विश्व एक अर्थव्यवस्था है तथा एक बाजार है ।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से यह निष्कर्ष निकलता है कि ”वैश्वीकरण वह प्रक्रिया है, जिसमें एक देश की अर्थव्यवस्था को सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत किया जाता है ताकि सम्पूर्ण विश्व एक ही अर्थव्यवस्था और एक ही बाजार के रूप में कार्य कर सके और जिसमें सीमाविहीन अन्तर्राष्ट्रीयकरण व्यवहारों के लिए व्यक्तियों, पूँजी, तकनीक माल, सूचना तथा ज्ञान का पारस्पारिक विनिमय सुलभ हो सके । वैश्वीकरण को सार्वभौमीकरण, भूमण्डलीयकरण और अन्तर्राष्ट्रीय आदि नामों से भी पुकारा जाता है ।”
Essay # 3. वैश्वीकरण की आवश्यकता (Needs of Globalization):
वैश्वीकरण की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है:
(1) वैश्वीकरण एकरूपता एवं समरूपता की एक प्रक्रिया है, जिसमें सम्पूर्ण विश्व सिमटकर एक हो जाता है ।
(2) अर्थव्यवस्था के तीव्र विकास के लिए वैश्वीकरण की नीति अपनायी गयी ।
(3) एक राष्ट्र की सीमा से बाहर अन्य राष्ट्रों में वस्तुओं एवं सेवाओं का लेन-देन करने वाले अन्तर्राष्ट्रीय नियमों या बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ राष्ट्र के उद्योगों की सम्बद्धता वैश्वीकरण है ।
(4) विश्व के विभिन्न राष्ट्र पारस्परिक सहयोग एवं सद्भावना के साथ बाजार तन्त्र की माँग एवं पूर्ति की सापेक्षित शक्तियों के द्वारा वस्तुओं एवं सेवाओं का क्रय-विक्रय कर अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करते हैं ।
(5) इस नीति के अन्तर्गत 34 उद्योगों को सम्मिलित किया गया । औद्योगिक नीति के अन्तर्गत उच्च प्राथमिकता प्राप्त उद्योगों में 51% तक के विदेशी पूँजी विनियोग को अनुमति प्रदान की गयी ।
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(6) वैश्वीकरण की नीति को विदेशी उन्नत तकनीकी से निर्मित वस्तुओं तथा राष्ट्र की औद्योगिक संरचना के लिए आवश्यक बिजली, कोयला, पेट्रोलियम जैसे मूलभूत क्षेत्रों तक सीमित रखा गया था ।
(7) जिन मामलों में मशीनों के लिए विदेशी पूँजी उपलब्ध होगी, उन्हें स्वतः उद्योग लगाने की अनुमति मिल जायेगी ।
(8) विदेशी मुद्रा नियमन कानून में भी संशोधन किया गया ।
(9) वर्तमान में अन्य निजी कम्पनियाँ भी विदेशों में इकाइयाँ स्थापित कर औद्योगिक विश्व व्यापीकरण की ओर अग्रसर हैं ।
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(10) वीडियोकॉन, ओनिडा, गोदरेज एवं बी. पी. एल. जैसी कम्पनियाँ, जापान, जर्मनी एवं इटली की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का सहयोग लेकर उन्नत किस्म की वस्तुओं का उत्पादन कर अत्यधिक लाभ अर्जित कर रही है ।
(11) इस नीति के अन्तर्गत 12 करोड़ या कुल पूँजी के 25% से कम की उत्पादक मशीनें बिना पूर्वानुमति के आयात की जा सकेंगी ।
(12) प्रवासी भारतीय को पूँजी निवेश के लिए अनेक प्रोत्साहन तथा सुविधाएँ दी गयीं । भारतीय कम्पनियों को यूरो निर्गम जारी करने की अनुमति प्रदान की गयी है ।
(13) वैश्वीकरण की दिशा में सरकारी क्षेत्र की उर्वरक कम्पनी कृषक भारतीय कोऑपरेटिव लि. को अमेरिका के फ्लोरिडा स्थित एक फास्फेट उर्वरक कारखाने को अधिग्रहण कर संचालित करने की अनुमति सरकार ने प्रदान की है ।
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Essay # 4. वैश्वीकरण की विशेषताएँ या लक्षण (Features or Characteristics of Globalization):
वैश्वीकरण की प्रमुख लक्षण या विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
i. इसमें, विश्व स्तर पर व्यापारिक बाधाओं को न्यूनतम करने के प्रयत्न किये जाते हैं जिससे दो राष्ट्रों के मध्य वस्तुओं तथा सेवाओं का सुलभ एवं निर्बाध गति से आवागमन हो सके ।
ii. वैश्वीकरण औद्योगिक संगठनों के विकसित स्वरूप को जन्म देता है ।
iii. विकसित राष्ट्र, अपने विशाल कोषों को ब्याज दर के लाभ में विकासशील राष्ट्रों में विनियोजित करना अधिक पसन्द करते हैं ताकि उन्हें उन्नत दर का लाभ प्राप्त हो सके ।
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iv. राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास किया जाता है कि विभिन्न राष्ट्रों के बीच सूचना एवं प्रौद्योगिकी का स्वतन्त्र प्रवाह होकर उन्नत तकनीकी का लाभ सभी राष्ट्र उठा सकें ।
v. पूँजी व्यावसायिक संगठनों की आत्मा होती है । वैश्वीकरण के अन्तर्गत विभिन्न अनुबन्ध करने वाले राष्ट्रों के मध्य पूँजी का स्वतन्त्र प्रवाह रहता है, जिससे पूँजी का निर्माण सम्भव हो सके ।
vi. वैश्वीकरण बौद्धिक श्रम एवं सम्पदा का भी विदोहन करता है अर्थात् एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्रों में श्रमिक वर्ग एवं कार्मिक वर्ग का स्वतन्त्र रूप से आवागमन सम्भव होता है ।
vii. वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवहारों पर लगे प्रतिबन्धों पर ढील धीरे-धीरे बढ़ती जाती है, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है ।
viii. वैश्वीकरण का प्रतिफल सम्पूर्ण विश्व में संसाधनों का आबंटन एवं प्रयोग बाजार की आवश्यकता तथा प्राथमिकता के आधार पर प्राप्त होने लगता है जिससे अविकसित एवं विकासशील राष्ट्रों को भौतिक तथा मानवीय संसाधनों की उपलब्धि शीघ्र होने लगती है, जो पूर्व में इतनी सहजता से प्राप्त नहीं होती थी ।
Essay # 5. वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण के प्रभाव (Impact of Globalization):
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भिन्न-भिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं में विश्व अर्थव्यवस्था के प्रभाव का अनुभव किया जा रहा है । प्रत्येक देश का उद्योग तथा व्यापार विश्व के अन्य भागों में हो रहे परिवर्तनों से प्रभावित होता है । सम्पूर्ण विश्व एक बाजार बन चुका है । आधुनिक अर्थव्यवस्थाएँ खुली अर्थव्यवस्था होती हैं और व्यवसाय वैश्विक स्थिति प्राप्त करता जा रहा है । इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भिन्न-भिन्न देशों में कार्य कर रही हैं ।
अन्तर्राष्ट्रीय उपक्रम भी देखने को मिलते हैं, वैश्विक विपणन के लिए दूरदर्शन के संजाल का प्रयोग किया जाता है । अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, अन्तर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक, विश्व व्यापार संगठन जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना की जा चुकी है । इन सभी से यह पता चलता है कि वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण का प्रभाव प्रत्येक स्थान पर दिखायी पड़ रहा है ।
संक्षेप में, वैश्वीकरण के प्रभावों को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं:
1. सामाजिक चेतना का विकास (Development of Social Consciousness):
शिक्षा के प्रचार प्रसार ने लोगों की सोच को प्रभावित किया है । रूढ़िवादी विचार का स्थान उदारवादी विचार ले रहे हैं । जीवन-स्तर में सुधार हुआ है तथा जीवन-शैली में परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ रहे हैं । सन्देशवाहन के उन्नत साधनों से विश्व का आकार छोटा हो गया है । विकसित देशों की सोच एवं जीवन के ढंग का अनुसरण अन्य देशों के लोगों द्वारा किया जा रहा है ।
व्यवसाय से की जाने वाली अपेक्षाएँ बढ़ती जा रही हैं । पहले लोगों को जो कुछ उद्योग प्रदान करता था, वे उससे सन्तुष्ट रहते थे किन्तु अब वे उचित मूल्यों पर उत्तम गुणवत्ता की वस्तुएँ चाहते हैं । वैश्विक प्रतिस्पर्धा ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है, जहाँ केवल वे व्यावसायिक उपक्रम जीवित रह पायेंगे, जो उपभोक्ताओं की सन्तुष्टि के अनुरूप वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन कर सकें ।
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लोग व्यवसाय को सामाजिक रूप से भी प्रत्युत्तर बनना देखना चाहते हैं । औद्योगिक इकाइयों द्वारा प्रदूषण का नियन्त्रण भी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें व्यवसाय को महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना है । इस प्रकार व्यवसाय के वैश्वीकरण ने समाज में एक नये प्रकार की सामाजिक चेतना को जन्म दिया है ।
2. प्रौद्योगिकी परिवर्तन (Technology Changes):
विश्व में बहुत तेजी से प्रौद्योगिकी परिवर्तन हो रहे हैं । औद्योगिक इकाइयाँ प्रतिदिन नये-नये एवं श्रेष्ठतर उत्पादों का निर्माण कर रही हैं । दूरसंचार एवं परिवहन की उन्नत विधियों ने विश्व विपणन में क्रान्ति सी ला दी है । उपभोक्ता अब इतना सचेत हो गया है कि वह प्रतिदिन से श्रेष्ठ उत्पाद प्राप्त करना चाहता है । कम्पनियाँ शोध एवं विकास पर अत्यधिक धन खर्च कर रही हैं । इस प्रकार तीव्र प्रौद्योगिकी परिवर्तनों ने उत्पादों के लिए विश्व बाजार उत्पन्न कर दिया है ।
3. व्यवसाय का वैश्विक स्वरूप (Global Form of Business):
आधुनिक व्यवसाय स्वभाव से वैश्विक बन गया है । निर्माणी वस्तुओं में विशिष्टीकरण का गुण पाया जाता है । ये वस्तुएँ वहीं उत्पादित की जाती हैं जहाँ उत्पादन लागत की प्रतिस्पर्धा होती है । इस प्रकार की वस्तुएँ अन्य देशों को निर्यात की जाती हैं । वे वस्तुएँ जो मितव्ययी ढंग से उत्पादित नहीं की जा सकती हैं, बाहर से आयात की जाती हैं ।
बड़ी संख्या में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में प्रवेश कर चुकी हैं, जो विभिन्न देशों की वस्तुओं का निर्यात करने के लिए भारत में उपलब्ध उत्पादन सुविधाओं का भी प्रयोग करती है । इस प्रकार, भारतीय व्यवसाय वैश्विक आर्थिक प्रवृत्तियों से प्रभावित है ।
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Essay # 6. वैश्वीकरण से सम्बद्ध कठिनाइयाँ (Constraints of Globalization):
वैश्वीकरण की राह में आने वाली कठिनाइयों में से कुछ का हम निम्न रूप में उल्लेख कर सकते हैं:
1. असमान प्रतिस्पर्द्धा (Unequal Competition):
वैश्वीकरण ने असमान प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दिया है । यह प्रतिस्पर्द्धा है ‘शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय निगमों’ और ‘कमजोर (व आकार में अपेक्षाकृत बहुत छोटे) भारतीय उद्यमों’ के बीच ।
वस्तुतः भारत की बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ भी विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की तुलना में बहुत छोटी और बौनी हैं और उनमें से कुछ इकाइयों को तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हजम कर चुकी हैं और कुछ सांस रोककर अपने अस्तित्व के अन्त का इंतजार कर रही हैं । जैसा कि पश्चिमी बंगाल के एक संसद सदस्य ने कहा है, ”भारत के सार्वभौमीकरण का अर्थ है हाथियों के झुण्ड में एक चूहे का घुसना” (Integrating a Mouse into a Herd of Elephants) ।
बलदेव राज नय्यर के अनुसार असमान प्रतिस्पर्द्धा के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:
(a) भारतीय उद्यम ‘आकार’ में बहुराष्ट्रीय निगमों की तुलना में बहुत छोटे हैं ।
(b) भारतीय उद्यमों के लिए पूँजी की लागत बहुराष्ट्रीय निगमों की तुलना में बहुत अधिक है ।
(c) 1991 से पूर्व चार दशक तक भारतीय निगम क्षेत्र अत्यन्त संरक्षणवादी माहौल में काम करता रहा ।
(d) देश में उत्पादित कई वस्तुओं पर अत्यधिक ऊँचे और बहुत स्तरों पर परोक्ष कर लगाये जाते हैं ।
(e) भारतीय उद्यम अभी भी पहले के नियमों से जकड़े हुए हैं ।
(f) कुछ क्षेत्रों में भारत सरकार की नीतियों में खुले रूप से बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ पक्षपात किया गया है । उन्हें करों में ऐसी छूटें दी गयी हैं जो भारतीय उद्यमियों को उपलब्ध नहीं हैं; विद्युत क्षेत्र में उनकी परियोजनाओं के लिए काउण्टर गारण्टी (Counter Guarantee) की व्यवस्था की गयी है जबकि भारतीय उद्यमियों को यह सुविधा नहीं दी गयी है ।
2. विदेशों में बढ़ता हुआ संरक्षणवाद (Growing Protectionism Abroad):
हाल ही के वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक परिवेश में महत्वपूर्ण, गुणात्मक परिवर्तन देखने को आ रहे हैं । औद्योगिक देशों में जब तेज गति से विकास हो रहा था तो ये देश मुक्त व्यापार के प्रशंसक थे किन्तु विगत कुछ वर्षों में जब से यहाँ विकास की गति धीमी पड़ गयी है, ये देश संरक्षण की नीति की आड़ लेने लग गये हैं ।
उदाहरण के लिए:
(a) जब भारतीय स्कर्ट (लहँगे) संयुक्त राज्य अमेरिका में अत्यन्त लोकप्रिय बनने लगे तो यह मिथ्या धारणा फैला दी गयी कि ये लहँगे ज्वलनशील पदार्थ से बनाये गये हैं ।
(b) हाल ही में यूरोपीय संघ (European Union) के देशों ने भारतीय टैक्सटाइल निर्यात पर डम्पिंग-विरोधी शुल्क (Anti-Dumping Duty) लगा दिया है ।
(c) विकसित देशों, जिनमें विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका उल्लेखनीय है, ने श्रम-मानदण्डों (Labour Standards) का मुद्दा उठाया, ताकि भारत से होने वाले कालीनों के निर्यात को कम किया जा सके ।
3. क्षेत्रीय व्यापार गुटों की स्थापना (Formation of Regional Trading Blocks):
वैश्वीकरण की आधारभूत मान्यता यह है कि सभी देशों में वस्तुओं, सेवाओं और पूँजी के प्रवाह पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होगा किन्तु इसके विपरीत सभी देश अपने आपको क्षेत्रीय व्यापार गुटों में बाँधते जा रहे हैं और व्यापार गुटों को निर्यात तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा की क्षमता बढ़ाने की कुंजी मानते हैं । इस समय 15 से अधिक व्यापारिक गुट बने हुए हैं । इन गुटों की स्थापना से स्वतन्त्र प्रतियोगिता की प्रक्रिया बन्द हो जाती है ।
4. तकनीकी उन्नति को बढ़ावा देने की आवश्यकता (Need to Stimulate Technical Progress):
वैश्वीकरण के लिए आवश्यक है कि विकसित देश पूर्ण संकल्प और निष्ठा के साथ विकासशील देशों में प्रयोग आने वाली उत्पादन तकनीकों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लायें, ताकि वैश्वीकरण का लाभ विकासशील देशों को भी मिले तथा वैश्वीकरण की नीति टिकाऊ हो सके ।
5. सीमित वित्तीय साधन (Limited Financial Resources):
अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में वस्तु प्रतियोगिता कर सके, इसके लिए वस्तु की किस्म में सुधार व उत्पादन बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होगी परन्तु विकासशील देशों में पूँजी का अभाव है । फलतः इन देशों को वित्तीय संसाधन जुटाने के लिए विश्व बैंक व मुद्रा कोष आदि अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के पास जाना पड़ता है जो अनुचित शर्तों पर वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराते हैं ।
6. अनुचित क्षेत्र में प्रवेश (Entry in Unwanted Area):
वैश्वीकरण नीति के तहत बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रवेश अधिकाधिक उपभोक्ता क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में हो रहा है जो उचित नहीं है । आर्थिक ससंचना के विनियोग पर 16 से 18% की प्रत्याय दर गारण्टी का आश्वासन भी अनुचित है । इसी प्रकार बीमा क्षेत्र को विदेशी कम्पनियों के लिए खोलने का स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि भारतीय बचत और भी कम होगी ।
7. अन्य समस्याएँ (Other Problems):
(a) उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता:
देश की अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक सुधार पूर्ण रूप से नहीं हो सके हैं क्योंकि जिन देशों ने वैश्वीकरण को अपनाया है, उन्होंने अपने यहाँ पूर्व में ही उसके लिए वातावरण तैयार किया है, साथ ही हमारे देश की स्वतन्त्र बाजार की दिशा में गति भी धीमी रही है ।
(b) प्रतिकूल स्थिति:
अमेरिका भारत पर ‘स्पेशल 301’ व ‘बौद्धिक सम्पदा’ अधिकार सम्बन्धी अवधारणा को स्वीकार करने के लिए दबाव डाल रहा है । ऐसी स्थिति में यदि हम वैश्वीकरण को स्वीकार करते हैं तो हमारी अर्थव्यवस्था बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों चली जायेगी तथा यदि अस्वीकार करते हैं तो भारत को वैश्वीकरण में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा ।
(c) श्रमिकों में भय:
भारतीय श्रमिकों का मानना है कि देश में आधुनिक मशीनों की स्थापना से कम श्रमिकों की आवश्यकता होगी, साथ ही कारखानों में छँटनी होगी तथा वे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होंगे ।
Essay # 7. वैश्वीकरण के सम्बन्ध में सुझाव (Suggestions Regarding Globalization):
भारतीय अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में वैश्वीकरण की प्रक्रिया को तेज करने के लिए कुछ प्रमुख सुझाव निम्नलिखित हैं:
I. भारतीय उत्पादकों की प्रतिस्पर्द्धा क्षमता में सुधार (Improvement in Competitiveness of Indian Producers):
विश्व बाजार में सफलता प्राप्त करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें अपनी प्रतिस्पर्द्धा क्षमता में सुधार लाना चाहिए ।
प्रतिस्पर्द्धा क्षमता में सुधार के लिए आवश्यक है:
(a) उत्पादकता में तीव्र वृद्धि
(b) वस्तुओं की गुणवत्ता में सुधार
(c) विकसित उत्पादन तकनीकों का विकास
(d) भारतीय कम्पनियों की संगठनात्मक पुनर्रचना |
यह उल्लेखनीय है कि कम्पनी की कुशलता की कसौटी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली कम्पनियों की कार्यकुशलता एवं उत्पादकता को मानना चाहिए और उस स्तर को प्राप्त करने के लिए सभी प्रयास करने चाहिए ।
II. MNCs से गठबन्धन (Alliance with MNCs):
भारत में बड़ी संख्या में MNCs का प्रवेश हो रहा है । MNCs के पास अपेक्षाकृत अधिक वित्तीय क्षमता, व्यापारिक अनुभव और कुशलता है । अतः MNCs और घरेलू कम्पनियों के परस्पर हित में है कि वे आपसी गठबन्धन में बँधे ।
III. तकनीक में आत्मनिर्भरता (Self-Sufficiency in Technology):
विश्वव्यापीकरण का लाभ भारत जैसे विकासशील देशों को तभी प्राप्त होगा जब वे अद्यतन तकनीक का उपयोग करेंगे ।
IV. अन्तर्राष्ट्रीय संरक्षणवाद से मुकाबला (Facing International Protectionism):
अन्तर्राष्ट्रीय संरक्षणवाद से निपटने के लिए एक ओर तो हमें घरेलू उपकरणों में विदेशियों की भागीदारी को बढ़ाना होगा, ताकि विदेशी उपक्रमी अपनी सरकारों पर संरक्षण की नीति अपनाने के विरोध में दबाव बनायें और दूसरी ओर, हमें घरेलू ब्राण्डों को विदेशी बाजारों में विकसित करना होगा, ताकि विदेशी क्रेता हमारे ही उत्पाद खरीदने के लिए उत्सुक रहें ।
V. कृषि व लघु क्षेत्र का आधुनिकीकरण (Modernization of Agriculture at Small Sector):
भारत चूँकि एक कृषि-प्रधान देश है, अतः भारतीय अर्थव्यवस्था की विश्वव्यापीकरण प्रक्रिया में भागीदारी तब तक व्यर्थ रहेगी जब तक कृषि एवं लघु क्षेत्र इस प्रयास में योगदान नहीं देता ।
अतः कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए आवश्यक है कि:
(a) कृषि से सम्बद्ध सभी उत्पादन क्रियाओं को जिनमें बीज बोने से कृषि उपज की बिक्री तक के सभी काम शामिल हैं, व्यावसायिक लिबास पहनाना होगा ।
(b) कृषि से सम्बद्ध उपरिढाँचे को विकसित करना होगा ।
(c) कृषि क्षेत्र में शोध एवं विकास के विस्तार की नितान्त आवश्यकता है जिससे कि ऐसे उत्पादों का निर्माण हो सके जो कि अन्तर्राष्ट्रीय गुणवत्ता के स्तर पर खरे उतर सकें ।
अतः निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि यद्यपि हमारी अर्थव्यवस्था वैश्वीकरण की दिशा में चल चुकी है परन्तु इस दिशा में किये गये प्रयासों की सफलता में सन्देह ही है ।
इस समय न तो अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण ही उपयुक्त है और न ही हमारी आन्तरिक आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियाँ ही इसके लिए तैयार हैं – देश इस बात के लिए एकमत बनता जा रहा है कि अन्धाधुन्ध वैश्वीकरण की अपेक्षा चयनात्मक वैश्वीकरण (Selective Globalization) की नीति अपनानी चाहिए ।
वस्तुतः भारत में घरेलू उदारीकरण व बाहरी उदारीकरण की प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलने से कुछ कठिनाइयाँ आने लगी हैं लेकिन प्रयत्न करने पर हम आधुनिकीकरण, मानवीय विकास व सामाजिक न्याय में ताल-मेल बैठाते हुए अर्थव्यवस्था को अधिक प्रतिस्पर्द्धा व अधिक कार्यकुशल बना सकते हैं ।
अन्य देशों ने पहले घरेलू उदारीकरण को सुदृढ़ किया और अपनी अर्थव्यवस्था को सबल व सक्षम बनाया और बाद में बाहरी उदारीकरण का मार्ग अपनाया । समयाभाव के कारण हमें विश्व की प्रतियोगिता में आगे बढ़ाने के लिए एक साथ दोनों मोर्चों पर कार्य करना होगा ।