Read this article in Hindi to learn about the classical theory of interest determination.
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मार्शल, वालरस, पीगू, मिल आदि अर्थशास्त्रियों ने किया । इस सिद्धान्त को बचत-विनियोग सिद्धान्त भी कहा जाता है । इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज की दर का निर्धारण पूँजी की माँग एवं पूँजी की पूर्ति द्वारा होता है । इसीलिए इस सिद्धान्त को ‘ब्याज का माँगपूर्ति सिद्धान्त’ भी कहा जाता है ।
पूँजी की माँग (Demand for Capital):
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पूँजी की माँग उत्पादक वर्ग द्वारा विनियोग करने के उद्देश्य से की जाती है । पूँजी की माँग पूँजी की उत्पादकता के कारण उत्पन्न होती है । यही कारण है कि पूँजी की माँग पूँजी की सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करती है । उत्पादन में जैसे-जैसे पूँजी की अतिरिक्त इकाइयों का प्रयोग किया जाता है उत्पत्ति ह्रास नियम के कारण पूँजी की सीमान्त उत्पादकता घटती जाती है ।
घटती सीमान्त उत्पादकता के कारण पूँजी की माँग एवं ब्याज दर में ऋणात्मक सम्बन्ध होता है जिसे चित्र 1 में DD वक्र द्वारा प्रदर्शित किया गया है । ब्याज दर OR पर पूँजी की माँग ON है । जब ब्याज दर बढ़कर OR1 हो जाती है तब पूँजी की माँग घटकर ON1 रह जाती है तथा जब ब्याज दर घटकर OR2 रह जाती है तब पूँजी की माँग बढ़कर ON2 हो जाती है ।
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पूँजी की पूर्ति (Supply of Capital):
सम्पूर्ण समाज की बचत को पूँजी की पूर्ति कहा जाता है । पूँजी की पूर्ति समाज में बचत की मात्रा पर निर्भर करती है । बचत करने के लिए समाज के व्यक्तियों को वर्तमान उपभोग का परित्याग करना पड़ता है जिसके लिए उसे ब्याज रूपी पुरस्कार की आवश्यकता पड़ती है ।
यदि बचत करने वाला व्यक्ति पुरस्कार के रूप में ब्याज प्राप्त नहीं करता तब वह बचत करके पूँजी की पूर्ति उपलब्ध नहीं करता । ब्याज और पूँजी की पूर्ति में कार्यात्मक सम्बन्ध (Functional Relation) होता है ।
ब्याज की दर ऊँची होने पर पूँजी की पूर्ति अधिक होती है और ब्याज की दर नीची होने पर पूँजी की पूर्ति घटती है । यही कारण है कि चित्र 2 के अनुसार पूँजी का पूर्ति वक्र SS बायें से दायें ऊपर की ओर चढ़ता हुआ होता है ।
ब्याज की दर OR पर बचतकर्ता ON पूँजी की पूर्ति देते हैं । ब्याज की दर के बढ़कर OR1 हो जाने पर पूँजी की पूर्ति बढ़कर ON1 हो जाती है क्योंकि ऊँची ब्याज दर पर लोग अधिक बचत करते हैं । इसके विपरीत, ब्याज की दर घटकर OR2 हो जाने पर पूँजी की पूर्ति ON2 तक घट जाती है क्योंकि ब्याज दर घटने पर लोग कम बचत करते हैं ।
ब्याज दर का निर्धारण (Determination of Interest Rate):
प्रतिष्ठित विचारधारा के अनुसार ब्याज दर का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पूँजी की माँग पूँजी की पूर्ति के बराबर होती है । ब्याज दर का निर्धारण चित्र 3 में प्रदर्शित किया गया है ।
चित्र में पूँजी का माँग वक्र DD तथा पूँजी का पूर्ति वक्र SS एक-दूसरे को बिन्दु E पर काटते हैं जहाँ OR (या EN) ब्याज की दर का निर्धारण होता है । पूँजी की पूर्ति और पूँजी की माँग के असन्तुलित होने पर ब्याज दर स्वतः समायोजित होकर सन्तुलन बिन्दु E पर पहुँच जाती है ।
अतिरेक पूँजी की पूर्ति होने पर ब्याज दर OR1 से नीचे गिरेगी और तब तक गिरती रहेगी जब तक सन्तुलन ब्याज दर OR प्राप्त नहीं हो जाती । इसी प्रकार अतिरेक पूँजी की माँग होने पर ब्याज की दर बढ़ेगी और बढ़कर सन्तुलन ब्याज दर OR तक पहुँच जायेगी ।
सिद्धान्त की आलोचनाएँ (Criticism of Theory):
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के सिद्धान्त की निम्नलिखित आलोचनाएँ हैं:
(1) पूर्ण रोजगार की मान्यता (Assumption of Full Employment):
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प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का सिद्धान्त पूर्ण रोजगार की मान्यता पर आधारित है । पूर्ण रोजगार वह स्थिति होती है जहाँ देश के सभी प्राकृतिक एवं मानवीय साधन पूर्ण क्षमता पर कार्य कर रहे होते हैं । पूर्ण रोजगार की अवस्था में पूँजी का भी पूरी क्षमता पर उपयोग होता है ।
ऐसी दशा में एक ऋणी को पूँजी उसी समय मिल सकती है जबकि उपभोग कम किया जाए और उपयोग कम करने के फलस्वरूप जो त्याग सहन करना पड़ता है उसी का प्रतिफल ब्याज है । अब प्रश्न यह उठता है कि यदि अपूर्ण रोजगार की अवस्था हो तो ब्याज क्यों दिया जायेगा ? वास्तविक जीवन में पूर्ण रोजगार की स्थिति नहीं पायी जाती है ।
(2) बचत तथा विनियोग पर ब्याज का प्रभाव (Effect of Interest on Saving and Investment):
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की यह मान्यता है कि बचत और विनियोग दोनों ही ब्याज दर पर निर्भर करते हैं । कीन्स इस बात से सहमत नहीं हैं । उनका कहना है कि बचत ब्याज दर की अपेक्षा प्रमुख रूप से राष्ट्रीय आय पर ही निर्भर करती है और विनियोग ब्याज की अपेक्षा प्रमुख रूप से पूँजी की सीमान्त उत्पादकता (Marginal Efficiency of Capital) पर निर्भर करता है ।
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(3) बचत और विनियोग में सन्तुलन (Equilibrium between Saving and Investment):
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की यह मान्यता है कि बचत और विनियोग में सन्तुलन ब्याज दर के माध्यम से होता है परन्तु कीन्स के अनुसार यह सन्तुलन ब्याज दर की अपेक्षा आय में होने वाले परिवर्तनों के माध्यम से होता है ।
(4) पूँजी की संकुचित धारणा (Narrow Conception of Supply of Capital):
पूँजी की पूर्ति के सम्बन्ध में प्रतिष्ठित विचारधारा बड़ी संकुचित है क्योंकि इसमें केवल वर्तमान आय से प्राप्त होने वाली बचत को ही शामिल किया जाता है । पिछली संचित राशि और बैंक साख दोनों ही पूँजी की पूर्ति के प्रमुख स्रोत हैं जिन्हें प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने भुला दिया था ।
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(5) अनिर्धारित सिद्धान्त (Indeterminate Theory):
कीन्स के अनुसार यह सिद्धान्त ब्याज की दर को निर्धारित नहीं कर सकता क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार ब्याज दर पूँजी की माँग एवं पूँजी की पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों पर निर्भर करती है । जब तक ब्याज का पता न हो बचत और विनियोग निर्धारित नहीं होंगे और जब बचत और विनियोग ही निर्धारित नहीं होंगे तो ब्याज दर किस प्रकार निर्धारित होगी ? अतः यह ब्याज का एक अनिर्धारित सिद्धान्त है ।
(6) उपभोग और विनियोग सम्बन्ध की उपेक्षा (Effect of Lesser Consumption on Investment Ignored):
इस सिद्धान्त में उपभोग के प्रभाव को बिल्कुल छोड़ दिया गया है । कीन्स का कहना है कि जब उपभोग माँग कम होती है तो अर्थव्यवस्था की समर्थ माँग भी कम होती है । समर्थ माँग होने से विनियोग के लिए प्रोत्साहन भी कम होता है । यह सिद्धान्त इस महत्वपूर्ण तथ्य की उपेक्षा करता है ।
(7) वास्तविक सिद्धान्त (A Real Theory):
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इस सिद्धान्त में ब्याज दर को निर्धारित करने वाले केवल वास्तविक तत्वों को ही शामिल किया गया है, जैसे – उत्पादकता, त्याग, प्रतीक्षा, समय, अधिमान आदि । मौद्रिक तत्वों की उपेक्षा की गयी है । कीन्स ने अपने ब्याज दर सिद्धान्त में मौद्रिक तत्वों को ही शामिल किया है ।
(8) मुद्रा की निष्क्रियता (Money Passive):
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की यह मान्यता है कि मुद्रा निष्क्रिय होती है अर्थात् आर्थिक चर-मूल्यों (Economic Variables) को प्रभावित नहीं करती । वास्तविकता यह है कि मुद्रा निष्क्रिय नहीं होती और कीन्स के अनुसार मुद्रा सक्रिय होती है क्योंकि ब्याज दर ही मुद्रा की पूर्ति और मुद्रा की माँग की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है ।
(9) बचत अनुसूची और विनियोग अनुसूची (Saving Schedule and Investment Schedule):
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री यह मानकर चलते हैं कि यदि किन्हीं कारणों से विनियोग में कमी अथवा वृद्धि हो जाए तो इसका बचत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । वास्तव में यह बात गलत है । उदाहरण के लिए, यदि विनियोग कम हो जाता है तो आय कम हो जायेगी और इसके फलस्वरूप बचत भी कम हो जायेगी ।
अतः ब्याज निर्धारण का यह सिद्धान्त भी एक आदर्श सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता ।